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मेरे अनुराग हो तुम / सैयद शहरोज़ क़मर
Kavita Kosh से
एक्शन शू में मलबूस
दौड़ता हांफता जब मैं पहुंचा था
सर्दी की अलस्सुबह
सुदूर पहाड़ियों की गोद में
और तुम प्रतिदिन की तरह नंगे पैर
बदरंग चिथड़े से शरीर व ठिठुरन को
ढंकने की असफल चेष्ठा किये
पंचवर्षीय योजनाओं को रौंदते निकल पड़ी थी
बूढ़ी माँ की
गिरती साँसों को वापस खींचने के
यत्न में तुम्हारा निर्भय होकर बढ़ाना क़दम
मुझे अच्छा लगा था नज़ाकत में छुपा संघर्ष
तीर बन तुम्हारा करुण जीवन
मेरे मर्म को भेदता
मेरे संस्कार को उद्देलित करता है
सामाजिक वर्जनाओं से
मैं क्यों हो जाता हूँ भयभीत
क़मल की ढाल लिए
नहीं कह पाता तुम्हें
ओ मेरे स्नेहिल
तुम अनुराग हो मेरे
मेरे अनुराग हो तुम