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मेरे अन्दर कुछ है / मोहन कुमार डहेरिया

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मेरे अन्दर कुछ है
चुभता फाँस-सा करता अस्थिर, बेचैन

कुछ यात्राएँ अधूरी उकसाती बार-बार
जीवन से बाहर हो गया कोई मूल्य
खड़े होने की कोशिश कर रहा एक कुचला हुआ शब्द
गुँथ गए हैं आपस में विचार
या कैशोर्य में पहले प्रेम के पकड़े जाने पर
पिताजी की बेतों की मार
टीस-टीस उठती वह

मैं समझ नहीं पाता
क्या है मेरे अन्दर
जन्म से ही साथ-साथ
या अटक गया टूटे पत्ते-से आकर

जीवन के जिस पड़ाव पर हूँ फिलहाल
बढ़ती ही जा रही गालों की सुर्खी
शेयरों में सुरक्षित है भविष्य
ऐसे में अपने अन्दर कुछ होने की बात करना
बेशर्मी की हद नहीं तो क्या !
सुनाई देती हैं पर मुझे अजीब-सी आवाज़ें
जलने और न जलने की दुविधा में
खदबदा रही जैसे चूल्हे में लकड़ी गीली

होता नहीं मन में विश्वास
जिया मैंने तो इस तरह जीवन
रखता चीज़ों के तापमान पर नज़र चौकन्नी
रहा हर जुलूस में पंक्तिबद्ध अनुशासित
त्रासदी हो कितनी ही दारुण
संयम, शालीनता के अन्दर रही करुणा
नहीं खोदी ख़न्दकें
न गुज़ारे शरणार्थी कैम्पों में दिन
बावजूद इसके हो रही ये कैसी गड़बड़
चलता हूँ तो लगता है
कर रहा कोई दबे पाँव पीछा
एक अज्ञात दिशा की तरफ बार-बार संकेत करते हाथ
जारी नहीं मेरे नाम पर जबकि कोई फतवा

कुछ-न-कुछ है मेरे अन्दर
भटक गया है भीतर के बीहड़ में कोई परिन्दा
बढ़ रही धीरे-धीरे ऊब की लकीर
कूट रहा स्मृतियों को शायद कोई मूसल
दे रही मौत अपना आभास
या प्रकाशमान हो उठा अन्दर साक्षात् ईश्वर
स्वीकारना चाह रही कुछ जिसके सामने आत्मा

खँगालता हूँ बार-बार सारे संस्कार
इतिहास में लगाता छलाँगें लम्बी
पता नहीं लग पाता कहाँ है दरअसल वह
आप भले ही कहें इस संवेदनशीलता की अतिरिक्तता
या जीवनबोध की विद्रूपता
महसूस नहीं होती दोस्तों से मिलने में ज़रा भी ऊष्मा
रखता हूँ जहाँ-जहाँ होंठ
खरोंचों से भर जाती पत्नी की देह
यहाँ तक आ पहुँचे अब तो हालात
अपनी विराटता में भी सन्तुष्ट नहीं कर पाती चीज़ें
मेरी प्यास के ऊपर से गुज़र जाती है बरसात
मेरे विलाप को नहीं पहचानता मेरा दुख

कहीं ऐसा तो नहीं
उत्कर्ष पर पहुँच गई हो मेरी द्वन्द्वात्मकता
कोई नए ढंग का शोर है यह
या हदों को पार कर जाता सन्नाटा
होता ऐसे ही मुखर

मैं जानता हूँ
नहीं होगा आपको विश्वास
होती है महान उड़ानों में जैसे-हल्की-सी लड़खड़ाहट
मेरे अन्दर भी कुछ है