मेरे अब्बा की बरसी / येहूदा आमिखाई / विनोद दास
जब भी चान्द पूरा खिला होता है
हमेशा मेरे अब्बा की बरसी होती है
उनकी मौत का दिन
कभी भी गर्मी या बसन्त में नहीं पड़ता
उनकी क़ब्र पर
निशानी के तौर पर
मैं कुछ छोटे पत्थर रखता हूँ
कि मैं यहाँ मौज़ूद था
क़ब्र पर ज़िन्दा इंसान के विजिटिंग कार्ड की तरह
मेरे अब्बा की क़ब्र बड़ी है
मेरे अब्बा कार्य हैं और कारण भी
उनकी अलार्म घड़ी मेरी देह को चूर-चूर कर देती है
मेरी अम्मा की सैबथ की दो मोमबत्तियाँ
रास्ते पर अगल-बगल धीमी-धीमी चल रही हैं
उन्हें एक जहाज़ खींच रहा है
जिसे मैंने नहीं देखा
जिम की खोखली गूँज में है
तेज़ चीख़
निकलती है भाप
और किसी दूसरे के पसीने के साथ
आती है रबड़ और लड़कियों की जाँघ की महक
अब्बा !
अब मैं अपने बालों को धोता हूँ
और कँघी करता हूँ
इसके सिवा मैं कुछ नहीं बदला हूँ
क़ब्र के पत्थर पर
आपकी शान में लिखी इबारत
पासपोर्ट से भी कम है
अब कोई पुलिस थाना
हत्यारे की तरह मुझसे पूछताछ करने नहीं आता
जब मैं घर पहुँचूँगा
चित लेट जाऊँगा
सूली पर चढ़ाए गए आदमी की तरह
बाँहें फैलाए हुए
अब्बा !
इससे मुझे सुकून मिलता है
अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास