मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
यह उस सागर का मोती है
जिसके अन्तर की थाह नहीं;
जलती ज्वालाओं की लपटें
उठती पर एक न आह कहीं;
लहरों पर अंकित भाव कौन पहचाने?
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
यह सान्ध्य गगन का तारा जो
खोया अपने सूनेपन में,
जग ने समझा यह एकाकी
ढक दिया धूलि-कण से क्षण में;
पर बन अनेक वह लगा ज्योति बिखराने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
इसके बल पर ही आज खड़ा
साम्राज्यवाद हँसता खिल-खिल,
युग-युग की शोषक रजनी का
अंचल करता झिलमिल-झिलमिल,
झंकृत वीणा के तार, लचीले गाने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
यह पिघल गया जर्जरित देख
प्रासादों की ये दीवारें,
पर देख उसे पिघलीं कब ये
ऊँची पत्थर की मीनारें;
मणियों के पहने हार लगीं मुसकाने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
तूफान मचल जाते जब तब
कूलों से आ-आकर कहते
अपने अन्तर की मौन व्यथा,
सुन कुल विवश अपलक रहते;
लखते जगती के क्रूर कर्म मनमाने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
आहों के तट पर पल-भर में
निष्करुण चित्र अंकित करते,
होते जब दृश्य असह्य अमित
अपलक नयनों के तट मिलते;
गिर पड़ता यह अनमोल रतन अनजाने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
पर क्या यह जग उसको लेने
अपनी झोली फैलाता है?
धरती का रेतीला अंचल
ही उसका मूल्य चुकाता है;
रवि-शशि की किरणें आतीं उसे उठाने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?
लख कर अपने आँसू का यों
बलिदान आँसुओं की धारा,
बहने लगती बलि-वेदी पर
पलकों की तोड़ जटिल कारा;
आँसू का आँसू मोल स्वयं पहचाने।
मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने?