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मेरे इंकलाब का सूरज - 2 / बाल गंगाधर 'बागी'

मशाल जले न जले, मगर यह दिल जलता है
किसी के दमन से, जब कोई दलित मरता है
मेरे तूफान से वह कश्ती, न बचा पायंेगे
दलित के ऊपर, जिनका बादल बरसता है

उठ के गिराना, तुमने है कहाँ से सीखा
यह भूचाल, अंदर कई सवाल उठाता है
तुम चि़राग बुझाना नहीं, हम ज्वाला हैं
जिसकी आग में, चट्टान भी पिघल जाता है

हम कायर नहीं, जो मैदान से भाग जाये
जितना गरजता हूँ, मेरा दिल उतना बरसता है
तुम्हारा वजूद, इंसानियत का खैर ख्वाह नहीं
यह इसलिये हमेशा, दलितों से भिड़ता है

आदमख़ोर कातिल, सुनों खूनी मनुवादियों
अब यह ज़माना तुम पर, थू-थू करता है
तुम्हें शर्म नहीं तो, अकल पर ही डूब मरो
तुम्हारा धर्म सबको, गैर बराबर रखता है

उस शख्स के पास वक्त ही वक्त रहता है
जो इंसान ज़ुल्म व ज़ुल्मी को मिटाता है
मेरे इंकलाब का सूरज, जल रहा है अभी
यह हर रोज कई बागियों को पैदा करता है