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मेरे उर की आलोक-किरण / अज्ञेय

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 मेरे उर की आलोक-किरण!
तेरी आभा से स्पन्दित है मेरा अस्फुट जीवन क्षण-क्षण!
मैं ने रजनी का भार सहा, तम वार-पार का ज्वार बहा-
पर तारों का आलोक तरल मुझ को चिर अस्वीकार रहा;
सुख-शय्या का आह्वान मिला-मति-भ्रामक स्वप्न-वितान मिला-
पर तेरे जागरूक प्रहरी का खड्गहस्त ही प्यार रहा!
तेरे वर से है अनल-गर्भ बन गया इयत्ता का कण-कण!
मेरे उर की आलोक-किरण!

मेरठ, 8 फरवरी, 1940