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मेरे कवि — 4 / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
चाय में दरख़्तों के अक़्स थे, जिन्हें पीकर हमें उठना था।
इस बिम्ब से भागकर हम कहीं नहीं गए उस सुबह, यात्राएँ
बैठ गई थीं। प्याली पर हरे फूलों के चित्र वही थे जो
स्मृति की प्याली पर थे। किनार पर एक बन्द आँख लगाए
हम चाय में अक़्सों की साँय-साँय सुनते थे।
फुलचुकियों से लदी टहनियों के बीच कुछ देर शमशेर का
एक शब्द था। हम पढ़े हुए नहीं थे। हवा में हिलती छैनियाँ
सुबह के धैर्य को तोड़ती थीं।