भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे ख़ुदा मैं अपने ख़यालों को क्या करूँ / राजेश रेड्डी
Kavita Kosh से
मेरे ख़ुदा मैं अपने ख़यालों को क्या करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों को क्या करूँ
चलना ही है मुझे मेरी मंज़िल है मीलों दूर
मुश्किल ये है कि पाँवों के छालों को क्या करूँ
दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्जिद को क्या करूँ मैं शिवालों को क्या करूँ
मैं जानता हूँ सोचना अब एक जुर्म है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों को क्या करूँ
जब दोस्तों की दोस्ती है सामने मेरे
दुनिया में दुश्मनी की मिसालों को क्या करूँ