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मेरे ख़्वाबों को जो एहसास का परवाज़ देता है / शुचि 'भवि'
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मेरे ख़्वाबों को जो एहसास का परवाज़ देता है
उसी से लेखनी मेरी वही अल्फ़ाज़ देता है
हज़ारों इल्म के हक़दार हैं जो लफ़्ज़ देते हैं
मगर आलिम वही है जो निगाहें राज़ देता है
न कोई है गिला उससे न है कोई शिकायत अब
ख़ुदा मुझको सँवरने का सदा अंदाज़ देता है
बनाई है ज़माने ने किताबों में पकी रोटी
कलाकारी में भी भूखा हमें आवाज़ देता है
सियासत हो गयी इतनी कि है ख़ामोश अच्छाई
बुराई को मगर 'भवि' ये ज़माना साज़ देता है