भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे खिलाफ में उठती हुई हवा देखो / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे खिलाफ में उठती हुई हवा देखो
उसी के बीच सफीना मेरा चला देखो

किताबें पढ़ के उसे ढूंढना कठिन होगा
लिखा जो उसने मेरे दिल पे है पता देखो

वही जो मेरे लिए सबसे दुश्मनी था लिए
समय जो आया तो दुश्मन से जा मिला देखो

मैं जा रहा हूँ मगर चाँद ले के लौटूँगा
अगर यकीन है तुमको तो आसरा देखो

मैं ढूंढता था कहीं आदमी का घर छोटा
वह मुझसे कहता था राजा का ये किला देखो

जो घर ये लगने लगा है तुम्हें भुताहा-सा
जहां में घर की कमी क्या है दूसरा देखो

जरूर दोस्ती है इसकी वायु-पानी झोंके से
ये शजर आंधी में कैसे तो है खड़ा देखो

यहाँ उमीद क्या करते हो, किसी की अमरेन्द्र
तू अपनी राह चलो, अपना रास्ता देखो ।