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मेरे गाँव की सड़क / निकिता नैथानी

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एक वक़्त
जब नहीं थी मेरे गाँव में सड़क
मुश्किलों से भरा होता था रास्ता
और धार<ref>पहाड़ के दूसरी तरफ़</ref> के उस पार थे
बाज़ार, हस्पताल और सड़क ।

तब, मेरे गाँव के लोग
जुड़े थे एक दूसरे के सहयोग से
तब आसपास के गाँव जाने में
नहीं लगती थी थकान
बल्कि होता था उल्लास
अपने ही दूसरे परिवार से मिलने का ।

एक धात<ref>एक आवाज़ पर</ref> पर एक साथ
खड़ा हो जाता था पहाड़
पहाड़ की मुश्किलें बाँटने के लिए ।

तब बच्चे जाते थे दूर स्कूल
बनाते हुए चार-पाँच गाँवों से रिश्ता
शरारतों से भरा सफ़र और
गुरजी का आदर …।

वो दूर का स्कूल करता था उनके भीतर
प्रकृति, समाज, ज्ञान, प्रेम और
पहाड़ का समन्वय ।

मगर जब उस दिन
आई मेरे गाँव में सड़क
तो साथ लाई शहर की गन्ध
एक ऐसी गन्ध
जिस पर मोहित होकर
एक-एक कर गाँव छोड़ गए
मेरे गाँव के लोग
कभी न लौटने के लिए ।

और जो बच गए
वो भी इसी उम्मीद में हैं कि
किसी दिन कोई आएगा और
वे भी चले जाएँगे
उसी सड़क से शहर की ओर …।

और इसके बाद
अब भी मौज़ूद है मेरा सड़क वाला गाँव
कुछ शहर वालों की याद में और
कुछ खण्डहरों में …।

शब्दार्थ
<references/>