मेरे गाँव में सुबह आई होगी / दिनेश देवघरिया
सुबह की पहली लोकल ट्रेन ने
जब ज़ोर से सीटी बजाई होगी।
माँ ने गोलू को उठाया होगा
लालटेन जलाई होगी
थोड़ी आनाकानी, थोड़ी पढ़ाई हुई होगी।
माँ के हटते ही
उसने दो झपकी भी लगाई होगी।
जब उषा की हल्की लाली
पूरब में छाई होगी।
आम की डाल पर बैठे
कोयल ने कूक लगाई होगी।
किसान खेतों को
बैलों के साथ जा रहे होंगें।
पर्वतीया काकी
मटके में पानी भर लाई होगी।
पास के मंदिर में
पंडित ने शंख बजाया होगा।
उसके छोटे बेटे ने
घंटी टुन-टुनवाई होगी।
बच्चों ने प्रसाद के लिए
लम्बी रेस लगाई होगी।
कंजूस पंडित ने फिर
छोटी-सी मिसरी की ढेली के साथ-
तुलसी के कुछ पत्ते बाँटे होंगे।
बच्चों के चेहरे पर बड़ी-सी खुशी आई होगी।
दादा ने-
छोटू से मालिश करवाई होगी
दादी बगिया से
ढेर सारे फूल तोड़ लाई होगी
माँ नहा कर रसोई में आई होगी।
साथियों ने
बड़े तालाब में डुबकी लगाई होगी।
मछुआरे के जाल में
फिर कोई बड़ी मछली फँस आई होगी।
मोटा पंडित कुछ मंत्र बुदबुदाया होगा
अंजलि में जल ले
सूर्य को चढ़ाया होगा।
करूआ ने कनखिया कर
दूर ज़नाना घाट में नहाती
किसी गोरी को निहारा होगा
रसूल चाचा ने-
उसके पीठ पर ज़ोर का चाँटा जड़ा होगा।
घाट पर हल्की-सी हँसी छाई होगी
बसंती हवा भी मुस्कुराई होगी।
कुछ इस तरह
मेरे गाँव में सुबह आई होगी।