मेरे घर की चौखट पर / निदा नवाज़
मेरी हर ओर यादें
और मैं यादों के इस दर्पण में
कभी हंसता हूँ
कभी रोता हूँ
और यह हंसी हर समय
अधूरी रह जाती है
निर्धन षोडषी के यौवन की तरह
जो आने से पहले ही
चला जता है
किसी सुन्द्र स्वप्न की तरह
और मैं खड़ा
ताकता रहता हूँ
इस दर्पण को
जो दर्पण मेरी छाया है
जो दर्पण मेरी आशा है
इस दर्पण से उभरता है
एक चित्र,ख़़ामोश
अजन्ता की प्रतिमाओं की तरह
गुम-सुम
एलोरा की गुफाओं की तरह
विरक्त
मेरी प्रेमिका का चित्र
समय के हाथों
वह भी मजबूर
समय के हाथों
मैं भी क्षत-विक्षत
और यादों के इस दर्पण में
कभी रोता हूँ
कभी हंसता हूँ
इस दर्पण से
उभरते हैं कुछ चेहरे
धूल से लिथड़े हुए
श्रमिकों के,किसानों के
बूढों और जवानों के
हर एक के चहरे पर
एक ही प्रश्न
एक ही शब्द
रोटी,रोटी,रोटी
हर एक के अधरों पर
केवल मानवता के घर्म की
चर्चा
और भूख,प्यास की
निर्मम मार
और यादों के इस दर्पण में
कभी हंसता हूँ
कभी रोता हूँ
इस दर्पण के ह्रदय से
उभरती है एक तल्ख़ आवाज़
जो कहती है
इस शताब्दी के लोगों
सभ्यता के दावेदारो
ऐ मानवता के मृत्युदाताओ
एक भारतीय नारी पूछती है
एक गम की मरी पूछती है
ये मेरी बहनें आज भी क्यों
आत्महत्याएं करती हैं
यह सीता और यह मरयम क्यों
भूखी-प्यासी मरती हैं
और मैं
यादों के इस दर्पण में
कभी हंसता हूँ
कभी रोता हूँ.