भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे चेहरे से ग़म का आश्कारा नहीं / 'फना' निज़ामी कानपुरी
Kavita Kosh से
मेरे चेहरे से ग़म का आश्कारा नहीं
ये न समझो कि मैं ग़म का मारा नहीं
चश्म-ए-साक़ी पे भी हक हमारा नहीं
अब ब-जुज़ तर्क-ए-मय कोई चारा नहीं
बहर-ए-गम़ में किसी का सहारा नहीं
ये कोई आसमाँ का सितारा नहीं
डूबने को तो डूबे मगर नाज़ है
अहल-ए-साहिल को हम ने पुकारा नहीं
ग़ुंचा ओ गुल को चौंका गई है ख़िजाँ
फ़स्ल-ए-गुल ने चमन को सँवारा नहीं
ग़ैर के साथ किस तरह देखूँ तुझे
अपनी क़ुर्बत भी मुझ को गवारा नहीं
यूँ दिखाता है आँखें हमें बागबाँ
जैसे गुलशन पे कुछ हक़ हमारा नहीं
ज़िक्र-ए-साक़ी ही काफ़ी नहीं ऐ ‘फ़ना’
बे-पिए मय-कदे में गुज़ारा नहीं