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मेरे जाने के बाद / अनिल गंगल

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जब मैं पंचमहाभूतों के रूप में नहीं रहूँगा
तब सम्भव है
कि तुम्हारे आसपास मैं एक अदृश्य उपस्थिति के रूप में रहूँ

एक जर्जर फ्रेम के बीच झाँकता होगा मेरा प्रसन्नमुख चेहरा
हालाँकि सूख कर झरने लगे बासी फूलों की माला के बीच मैं
दसों दिशाओं में चल रहे खण्ड खण्ड पाखण्ड पर्वों’ का
मूक साक्षी रहूँगा

यही होगा कि मेरे जाने के बाद
मेरे मौन को ही आसपास घट रहे अपराधों के प्रति
मेरी मूक सहमति मान लिया जाएगा

जो भी सिर झुके होंगे श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए
सम्भव है कि वे मेरे सम्मान में नहीं
किसी अज्ञात भय से झुके हों
सम्भव है कि नतमस्तक कन्धों में सिर्फ़ एक ही कन्धा हो
मेरे आगे झुका हुआ
जिन्हें थपथपा सकती हों सान्त्वना में
तस्वीर के फ्रेम से बाहर निकली मेरी मृत हथेलियाँ

दुनिया से जाने के बाद हो सकता है
पल भर के लिए रुक जाए मेरे वक़्त की घड़ी
मगर तय है यह
कि बदस्तूर ज़ारी रहेगी तमाम यह भागमभाग और आपाधापी

इस बीच हो सकता है
कि ख़ूनख़राबे में आपादमस्तक डूबे ख़ूनालूदा चेहरों को दी जाए
हमारे वक़्त की सबसे महान ईजाद की संज्ञा
सम्भव है कि ग़ायब हो जाएँ सौन्दर्यशास्त्र के पन्नों से
सौन्दर्य की सभी सुपरिचित परिभाषाएँ

जहाँ-जहाँ धोंकनी की तरह धड़कता था मेरा हृदय
मेरी साँसों की गर्माहट से भरे रहते थे घर के जो-जो कोने
जानता हूँ कि मेरे जाने के बाद
वहाँ-वहाँ चिन दिए जाएँगे भाँति-भाँति के कबाड़ के अटम्बर

फिर-फिर जाना चाहूँगा इस जीवन की चारदीवारी के बाहर
जब दीवार पर सूख चुके फूलों से ढँकी मेरी तस्वीर
घर के सौन्दर्य पर कुरूप धब्बे की तरह लगेगी
और लोहे, प्लास्टिक और पुराने पड़ चुके अख़बारों की मानिन्द
कबाड़ में फेंक दी जाएगी.
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(’स्मृतिशेष कवि मणि मधुकर की एक लंबी कविता का शीर्षक)