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मेरे तुम, मैं नित्य तुम्हारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मेरे तुम, मैं नित्य तुम्हारी, तुम मैं, मैं तुम, संग-असंग।
पता नहीं कब से, मैं तुम बन, तुम मैं बने कर रहे रंग॥
होता जब वियोग, जब उठती तीव्र मिलन-‌आकांक्षा जाग।
पल-‌अमिलन होता असह्य, तब लगती हृदय दहकने आग॥
चलती मैं रस-सरि उन्मादिनि विह्वल-विकल तुम्हारी ओर।
चलते उमड़ मिलाने निजमें तुम भी रस-समुद्र तज छोर॥
लीला-रस-‌आस्वादन-हित तुम-मैं बनकर वियोग-संयोग।
धर अनेक रस-रूप रमण-रमणी करते नव-नव सभोग॥
किंतु मैं न रमणी, न रमण तुम, एक परम चिन्मय रस-तत्व।
आश्रय-विषय रूप हो सुमधुर शोभन सदा शुद्धतम सत्व॥