मेरे दुलार पाने के आखिरी दिन / शैलजा पाठक
तुमने सारे रिवाज निभा दिए
और कर दिया मुझे अपनी जिंदगी से
दूर और दूर...
तुम्हें याद है ना भाई?
जब मंडप को घर के बड़ों ने छवाया
और मेरे जीवन में एक पुख्ता
छत की नींव डाली
तुम वही मेरे पास बैठे देख रहे थे सब
जब अम्मा ने अपने भाई से ली थी
इमली घोटाई की साड़ी
और जीवन में साथ का भरोसा..
तुम सामने से देख रहे थे
या खोये थे कही और?
कन्यादान की रस्म में
जब औरतें गा रही थी वो गीत
(अरे अरे भैया हमार भैया हों धरिया जनी तोड़ी ह हो )
तुम जानते थे भाई
कलश का पानी खतम होते ही
मैं किसी और की हो जाउंगी
तुम कितनी देर-देर तक
बचा-बचा कर गिरा रहे थे पानी
पर नही बचा पाए ना मुझे पराया होने से
तुम अपनी समर्थता में भी
कितने निरीह लगे थे मुझे
और आखिर में तुमने निभा दी वह रस्म भी
जब विदा के वक्त तुमने अपनी अंजलि से
पिलाया था मुझे पानी
जिसमे मिले थे मेरे तुम्हारे आँसू
मुझे रीतियों ने बताया
वो था मेरे दुलार पाने का आखिरी दिन
तुम तो समृद्ध थे ना
पर कितने लाचार लगे
पीछे मुड के देखा था मैंने
कैसे रो रहे थे तुम
ढेर पड़े पिताजी को पकड कर
मैं ओझल हूँ
पर मुझे पता है
मेरे बाद अम्मा ने बटोरा होगा
अपने आँचल में घर भराई का चावल
और तुम मेरी मेज पर सजा रहे होगे मेरी ही किताब
फ्रेम में लगी मेरी फोटो मुस्करा रही होगी
और तुम भाई???