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मेरे देश में / महेन्द्र भटनागर

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आज
मेरे देश के आकाश पर
काली घटाएँ वेदना की
घिर रही हैं !
कड़कड़ा कर गाज
टूटे,
फूस-मिट्टी के हज़ारों छप्परों पर
गिर रही है !
और गहरा हो रहा है
ज़िन्दगी की शाम का
फैला अँधेरा,
पड़ रहा
चमगादड़ों का, उल्लुओं का,
मौत के सौदागरों का,
ख़ून के प्यासे हज़ारों दानवों का,
ज़िन्दगी के दुश्मनों का
भूत की छाया सरीखा
आज डेरा।

कर दिये वीरान
कितने लहलहाते खेत
जीवन के,
सुनायी दे रहे स्वर
दुख, अभावों और क्रन्दन के !


करोड़ों मूक जनता
आज भूखी है,
विवशता के धुएँ में


मुश्किलों से साँस लेती है !
किसी के द्वार पर
दम तोड़ देती है !
कि निर्बल हड्डियों का
क्षीण पंजर छोड़ देती है !