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मेरे पाँव तुम्हारी गति हो / ताराप्रकाश जोशी
Kavita Kosh से
मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
फिर चाहे जो भी परिणति हो ।
कोई चलता, कोई थमता
दुनिया तो सड़कों का मेला,
जैसे कोई खेल रहा हो
सीढ़ी और साँप का खेला,
मेरे दाँव तुम्हारी मति हो
फिर चाहे जय हो या क्षति हो ।
पल - पल दिखते, पल - पल ओझल
सारे सफ़र पड़ावों के छल,
जैसे धूप तले मरुथल में
हर प्यासे के हिस्से मृगजल,
मेरे नयन तुम्हारी द्युति हो
फिर कोई आकृति अनुकृति हो ।
क्या राजाघर, क्या जलसाघर
मैं अपनी लागी का चाकर,
जैसे भटका हुआ पुजारी
ढूँढ़ रहा अपना पूजाघर
मेरे प्राण तुम्हारी रति हो
फिर कैसी भी सुरति - निरति हो ।
ये सन्नाटे ये कोलाहल
कविता जन्मे साँकल - साँकल,
जैसे दावानल में हंस दे
कोई पहली-पहली कोंपल,
मेरे शब्द तुम्हारी श्रुति हो
यह मेरी अन्तिम प्रतिश्रुति हो ।