मेरे पास प्रेम नारंगी था और देह बैंजनी / वंदना गुप्ता
लगता है कभी कभी
बदल गयी हूँ मैं
मेरे अन्दर की औरत
उंहूंकुछ और मत समझना
हकीकत के आइनों में नज़र नहीं आयेंगे जवाब
और जो लिखा होगा
वो पढ़ नहीं पाओगे तुम
अब जरूरी तो नहीं न हर लिपि की जानकारी तुम्हें होना
कोई कायदे कभी पढ़े ही नहीं हमने
न अब कोई हल नहीं
उतरती धूप में नहीं सुलगा करती धरती
तुम पिछवाड़े की सांझ से मत करना अब कोई प्रयत्न
बदलने के नियमों को ताक पर रख दिया गया
देह की देह से रगड़ तक ही जहाँ रिश्ता रहा
वहां ये तो होना ही था
क्योंकि
प्रेम अंकुआने के मौसमों में देह गौण हुआ करती है
मेरे पास प्रेम नारंगी था और देह बैंजनी
जाने रंग का कमाल हुआ
या रंग ही बदल गया नहीं जानती
मगर
और बदलाव की इन्तेहा देख
देह तक ही सिमट चुकी हूँ आज मैं भी तेरी ही तरह!