मेरे पास रखा ही क्या था / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
मेरे पास रखा ही क्या था
क्यों तुम मेरे पास ठहरते
तुमको महलों की चाहत थी
मेरा टूटा-फूटा घर था
तुम फूलों पर चलने वाले
मेरा काँटों भरा सफ़र था
ऐसे में ओ मेरे हमदम
कैसे ना तुम राह बदलते
मेरे पास रखा...
सबकी तरह तुम्हें भी भाती
थी केवल दीनार की भाषा
कब तक आख़िर बाँधे रखती
तुमको मेरे प्यार की भाषा
कैसे भाव तिजारत वाले
रिश्तों के साँचों में ढलते
मेरे पास रखा...
समझ गया सब, नहीं ज़रूरत
मुझको कुछ भी समझाने की
किसको चाहत नहीं जहाँ में
अच्छे से अच्छा पाने की
मुझसे अच्छा मिला कोई तो
क्यों तुम रूख़ उस ओर न करते
मेरे पास रखा...
तुम्हें भूल जाने का निश्चय
झूठा है, कब सच होना है
आँखें दो दिन को रोई हैं
मन को जीवन भर रोना है
क़िस्मत ने क्या दिन दिखलाए
सूखे स्वप्न फूलते-फलते
मेरे पास रखा...