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मेरे पास / महेश वर्मा

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मेरे पास जो तुम्हारा ख़याल है
वह तुम्हारे होने का अतिक्रमण कर सकता है
एक चुप्पी जैसे चीरती निकल सकती हो कोलाहल का समुद्र
मैं एक जगह प्रतीक्षा में खड़ा रहा था
मैं एक बार सीढ़ियाँ चढ़कर वहाँ पहुँचा था
मैंने बेवज़ह मरने की सोची थी
मैंने एक बार एक फूल को और
एक बार एक तितली के पंख को ज़मीन से उठाया था
मैं दोपहरों से वैसा ही बेपरवाह रहा था जैसा रातों से
मैं रास्ते बनाता रहा था और
मैं रास्ते मिटाता रहा था -- धूल में और ख़याल में
इन बेमतलब बातों के अंत पर आती रही थी शाम
तुम्हारा एक शब्द मेरे पास है
यह किसी भी रात का सीना भेद सकता है और
प्रार्थनाघरों को बेचैन कर सकता है
सिवाय अँधेरे के या ग़ुलामी के पट्टे के
इसे किसी और चीज़ से नहीं बदलूँगा
इसे दोहराता हूँ
कि जैसे माँज के रखता हूँ चमकदार !