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मेरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है / मनचंदा बानी
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मेरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है ।
इक और ज़ात में ढलता हुआ सा कुछ तो है ।
मेरि सदा न सही, हाँ मेरा लहू न सही
ये मौज-मौज उछलता हुआ सा कुछ तो है ।
कहीं न आख़िरी झोंका हो मिटते रिश्तों का
ये दरमियाँ<ref>बीच में</ref> से निकलता हुआ सा कुछ तो है ।
जो मेरे वास्ते कल ज़हर बन के निकलेगा
तेरे लबों पे संभलता हुआ सा कुछ तो है ।
बदन को तोड़ के बाहर निकलना चाहता है
ये कुछ तो है, ये मचलता हुआ सा कुछ तो है ।
ये मैं नहीं, न सही, अपने सर्द बिस्तर पर
ये करवटॆं सी बदलता हुआ सा कुछ तो है ।
मेरे वजूद से जो कट रहा है गाम-ब-गाम<ref>हर पग पर</ref>
ये अपनी राह बदलता हुआ सा कुछ तो है ।
जो चाटता चला जाता है मुझको ऐ 'बानी'
ये आस्तीन में पलता हुआ सा कुछ तो है ।
शब्दार्थ
<references/>