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मेरे भीतर की नदी / पारसनाथ

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बबूलों से भरा
हो गया जंगल-जंगल
मूक-बधिर-सा
मेरा ये जीवन।

अर्थहीन हो गयी है
मेरे भीतर की नदी
और
छलाँग लगा गया हूँ मैं
ममता की लहरों में
जो निखालिस तरंगायित हैं
बदतमीज़ी के आर-पार
तैरना चाहकर भी,
तैर नहीं पायी / मेरी ज़िन्दगी
क्योंकि
अपने होने का एक एहसास
झुठला गयी है
बेहयाई को तड़पा गयी है।

नदी-नदी है
और मेरा होना
उसके भीतर तैरना
एक वहम मात्र है।
यकायक
आहत हुआ हूँ मैं
एक बड़ा उत्सव हुआ है
मेरी दरिद्रता के रूपों का
असमय उद्घाटन हुआ है
मेरे खोखलेपन का
फिर
वो मुझे अधीर कर गयी है
ख़ुशी मेरी छीन गयी है
सपनों में तन गयी है।
मेरे इरादे और नतीजे
बख़ूबी जानते हैं लोग
मेरे अपनेपन को पहचानते हैं लोग
मेरे भीतर की नदी को
उबालते हैं लोग।

अब ज़िन्दगी
कोमल होने की कोशिश में
आत्म-गरिमा के भाव-सा
चुपचुपा है
मैं नहीं जान पाया
हताश नहीं हुआ
अँधेरी गली / सुरंग में
खिंचता गया
फिर भी
उदास नहीं हुआ हूँ।

शब्द गहराये हैं
सदियों से सुन्न हुए
पत्थरों पर
सिर पटकने की बजाय
कुनमुनाये हैं।

अपनी वो छितराई ज़िन्दगी
मूक-बधिर-सा जीवन
जीना सीख लिया है
जिसे लोगों ने भटकाव दिया था
यथार्थ को परख लिया है।
'मेरे दुःख में कोई ध्वनि नहीं है
मेरा सुख कोई सपना नहीं है
सिर्फ़ संगम है / आँख-मिचौली है।'
रेत की प्यास बनी यह दुनिया
पराजित, पराभूत लगी है
तार-तार रूपों में छिन्न-भिन्न
दिखी है
छिन्नमस्ता औघड़ की तरह
मेरा यह जीवन
बबूलों-से भरा हुआ है
मेरे भीतर की नदी में!!