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मेरे मन का शहर / नूपुर अशोक

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मेरे मन के अन्दर एक शहर है
कुछ इमारतें यादों से भरी,
कुछ बस खंडहर हैं,

कभी आकर इस शहर को देखो
कितनी गलियाँ,
कितने मोड़,
हैं इस शहर में।

कभी आकर इस शहर को देखो
कुछ नदियाँ
कुछ झीलें भी हैं
इस शहर में,

मेरे मन के अन्दर जो शहर है
वहाँ मैं तुम्हें ख़ुद ले कर आती
पर ख़ुद ही रास्ते भूल चुकी हूँ,

आँधियों ने वे पेड़ भी गिरा दिए
जिनसे मैं पहचानती थी,
गलियों के मोड़,

अब इस शहर में भटक रही हूँ,
अपने रास्ते ढूँढ़ रही हूँ
ढूँढ़ रही हूँ अपनों को
अपने ही मन के अन्दर
अपने ही शहर में।

मेरे मन के अन्दर एक शहर है।