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मेरे मन के समंदर में / सुशीला पुरी
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मेरे मन के समंदर में
ढेर सारा नमक था
बिलकुल खारा
स्वादहीन
उन नोन चट दिनों में
हलक सूख जाती थी
मरुस्थली समय
ज़िद किए बैठा था
नन्हे शिशु-सी मचलती थी प्यास
मोथे की जड़ की तरह
दुःख दुबका रहता था भीतर
उन्ही खारे दिनों में
मेरे हिस्से की मिठास लिए
समंदर की सतह पर
छप-छप करते तुम्हारे पाँव
चले आए सहसा
और
नसों में
घुल गया चन्द्रमा ।