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मेरे मन तेरा क्या / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
आवो फसलें उगाते हैं सम्मान की
जो बिक न सके किसी बाजार में
सरहदों के सवालों से निकलें अभी
भंवर में हो जब बिगड़े हालात में
बस तसव्वुर महज न हो जज्बात का
आपसी रंजिशों के सवालात में
इक कदम बढ़ चली हैं, राहें रात की
नींद से ठ चलो ऐसे हालात में
जली कुछ मशालों की लौ देखकर
लोग आयेंगे लोगो की पहचान में
आज चलना है बस हाथियों की तरह
भौंकना बन्द हो उनकी आवाज़ में
हम तो ज़ालिम नहीं दुश्मनों की तरह
छेद करते नहीं किसी की नाव में
उनके सांसों पे पहरे भी हरदम लगे
दुश्मनों को जो दिल से लगाते रहे
बाग़ी उल्फत जमाने में रुसवा हुई
वो चिराग़ें मोहब्बत1 बुझाते रहे