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मेरे लहू की आग ही झुलसा गई मुझे / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
मेरे लहू की आग ही झुलसा गई मुझे
देखा जो आइना तो हँसी आ गई मुझे
मेरी नमूद* क्या है, बस हक तूदा-ए-सियाह*
कौंदी कभी जो बर्क़* तो चमका गई मुझे
मैं दश्ते-आरजू पे घटा बनके छा गया
गर्मी तेरी वजूद की बरसा गई मुझे
मैं जैसे इक सबक़ था कभी का पढ़ा हुआ
उठी जो वो निगाह तो दोहरा गई मुझे
हर सुबह मैंने ख़ुद को ब-मुश्किल बहम किया*
उतरी ज़मीं पे रात तो बिखरा गई मुझे
तेरी नज़र भी दे न सकी ज़िंदगी का फ़न
मरने का खेल सहल* था, सिखला गई मुझे
1- नमूद--प्रदर्शन
2- तूदा-ए-सियाह--काला ढेर
3- बर्क़--बिजली
4- ब-मुश्किल बहम किया--कठिनाई से इकट्ठा किया हुआ
5- सहल--आसान