भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे लाल को हरा पसन्द है / राकेश रंजन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे लाल को हरा पसन्द है
उसे हरी कमीज़ चाहिए
हरी पतलून
टोपी हरी मोजे हरे रूमाल हरा
बहुत सारी चीज़ों में से
वह उसे चुनेगा
जिसमें हरा सबसे ज़्यादा हो
उसे संख्या सिखाओ और कहो 'वन'
तो समझेगा जंगल
कहो पहाड़ा
तो सुनेगा पहाड़

कितने रंग कितने सपने उगाता हूँ मैं
कविता के वृन्त पर
कितनी इच्छाएँ कितने प्रण
क्या मैं एक पत्ता उगा सकता हूँ
उसके लिए
कविता के बाहर
एक सचमुच का पत्ता?

जैसे लाल के ललाट पर लगाता हूँ
काला टीका
वैसा ही टीका लगा सकता हूँ
हरे के ललाट पर?
जैसे उसे देता हूँ हरी गेंद
दे सकता हूँ केले का भीगा हुआ वन
दूर तक फैला
नदी के साथ-साथ?
गेहूँ को पोसता महीना पूस का?
शिशिर के दुआरे से देह झाड़कर निकला वसन्त

पतरिंगों की चपल फड़फड़ाहट में साँस लेता हुआ?
ओ सतरंगी पूँछवाली हरी पतंग,
तुम उड़ो वसन्त के गुलाबी डैनों पर सवार
मैं लगाता हूँ
अपनी जर्जर उँगलियों से ठुनके
उम्मीद के
ओ दूब, तुम फैलो
धरती की रेत होती देह पर!

मैं स्टेशनरी जाता हूँ
और कहता हूँ वह ग्लोब देना
जिसमें हरा ज़्यादा गहरा हो
जिल्दसाज से कहता हूँ
धरती एक किताब है रंगों के बारे में
ज़रा, फट-चिट गई है
इस पर लगा दो फिर से
वही हरी जिल्द

मेरे लाल को हरा पसन्द है
इसे मैं दुहराता हूँ उम्मीद की तरह
इस काले होते वक़्त में
रहम करो, लोगो
मत सुनो इसे मजहब की तरह
मत देखो इसे
सियासत की तरह

ओ पेड़ो – ओ हरे फव्वारो,
तुम उठो नीले आकाश की तरफ़
ओ सुग्गो,
मेरे स्याह आँगन में उतरो !