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मेरे वजूद को परछाइयों ने तोड़ दिया / फ़ाज़िल जमीली

मेरे वजूद को परछाइयों ने तोड़ दिया
मैं इस हिसार था तनहाइयों ने तोड़ दिया

बहम जो महफ़िल-ए-अग़्यार में रहे थे कभी
ये सिलसिला भी शनासाइयों ने तोड़ दिया

बस एक रब्त निशानी था अपने पुरखों की
इसे भी आज मेरे भाइयों ने तोड़ दिया

तू बे-ख़बर है मगर नींद से भरी लड़की
मेरा बदन तेरी अँगड़ाइयों ने तोड़ दिया

ख़िजाँ की रूत में भी मैं शाख से नहीं टूटा
मुझे बहार की पुरवाइयों ने तोड़ दिया

मेरा भरम था यही एक मेरी तनहाई
ये इक भरम भी तमाशाइयों ने तोड़ दिया