मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ / प्राण शर्मा
मेरे वतन के लोगो मुख़ातिब मैं तुमसे हूँ
क्यों कर रहे हो आज तुम उल्टे तमाम काम
अपने दिलों की तख़्तियों पे लिख लो ये कलाम
तुम बोओगे बबूल तो होंगे कहाँ से आम
कहलाओगे जहान में तब तक फ़क़ीर तुम
बन पाओगे कभी नहीं जग में अमीर तुम
जब तक करोगे साफ़ न ज़मीर तुम
उनसे बचो सदा कि जो भटकाते हैं तुम्हें
जो उल्टी-सीधी चाल से फुसलाते हैं तुम्हें
नागिन की तरह चुपके से डस जाते हैं तुम्हें
जो कौमें एक देश की आपस में लड़ती हैं
कुछ स्वार्थों के वास्ते नित ही झगड़ती हैं
वे क़ौमें घास- फूस की मानिंद सड़ती हैं
ये प्रण करो कि खाओगे रिश्वत कभी नहीं
गिरवी रखोगे देश की किस्मत कभी नहीं
बेचोगे अपने देश की इज्ज़त कभी नहीं
देखो , तुम्हारे जीने का कुछ ऐसा ढंग हो
अपने वतन के वास्ते सच्ची उमंग हो
मक़सद तुम्हारा सिर्फ बुराई से जंग हो
जग में गंवार कौन बना सकता है तुम्हे
बन्दर का नाच कौन नचा सकता है तुम्हे
तुम एक हो तो कौन मिटा सकता है तुम्हे
चलने न पायें देश में नफरत की गोलियाँ
फ़िरक़ापरस्ती की बनें हरगिज़ न टोलियाँ
सब शख़्स बोलें प्यार की आपस में बोलियाँ
मिलकर बजें तुम्हारी यूँ हाथों हाथों की तालियाँ
जैसे कि झूमती हैं हवाओं में डालियाँ
जैसे कि लहलहाती हैं खेतों में बालियाँ
सोचो ज़रा विचारों कि तुमसे ही देश है
हर गंदगी बुहारो कि तुमसे ही देश है
तुम देश को संवारो कि तुमसे ही देश है