मेरे वश की यह बात नहीं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
तुम कहते मन की बात किसी से मत कहना,
पर मैं कहता-मेरे वश की यह बात नहीं॥
अब आकर भूली याद किसी की सपनों में,
सहसा अन्तर की सोई पीर जगा जाती।
बेसुध होकर विरहाकुल प्राण तड़प उठते,
सावन-भादों-सी घटा दृगों में घिर आती।
आँसू गिर कर कह देते मन की मौन-व्यथा,
रोके रुकती तब नयनों की बरसात नहीं।
तुम कहते मन की बात किसी से मत कहना,
पर मैं कहता-मेरे वश की यह बात नहीं॥
मिल कर दो साथी चिर वियोग के बाद कभी,
जब तृषित-हृदय की संचित प्यास बुझा पाते।
तब देख उन्हें नित नई सरस क्रीड़ा करते,
बरबस मेरे मन के मृदु गीत मचल जाते।
मैं रोक सकूँ अधरों पर आने से उनको,
ऐसी कोई भी युक्ति मुझे है ज्ञात नहीं।
तुम कहते मन की बात किसी से मत कहना,
पर मैं कहता-मेरे वश की यह बात नहीं॥
मधु ऋतु के आने पर मदमाती कोयलिया,
जब कूक-कूक कर पंचम स्वर में गाती है।
विकसित कलियों का रस पीकर जब मस्ती में,
मधुपों की टोली गुन-गुन राग सुनाती है,
झंकृत हो उठते उर-तन्त्री के तार तभी,
कर बन्द सकूँ स्वर मेरी तनिक बिसात नहीं।
तुम कहते मन की बात किसी से मत कहना,
पर मैं कहता-मेरे वश की यह बात नहीं॥
दुख के काले बादल कवि के उर-अम्बर में,
जब घुमड़-घुमड़ पावस-घन से घहराते हैं।
मच जाती उथल-पुथल सी सुप्त विचारों में,
अन्तर में नूतन भाव विपुल भर जाते हैं।
तब वेगपूर्ण बहता जो कवि के मानस से,
वह रुक पाता कविता का अथक प्रपात नहीं।
तुम कहते मन की बात किसी से मत कहना,
पर मैं कहता-मेरे वश की यह बात नहीं॥