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मेरे शब्दों में पर सुर्खाब के / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
टुकड़े-टुकड़े
क़िस्से बुनना, रात-रात भर
जागना।
ऐसे
जीवन की राहों पर
क्या रुकना,
क्या भागना।
जिन पर
किया भरोसा,
उनके
मन से कोसों दूर था,
रातों से
लम्बे सपने थे,
मेरा
यही कुसूर था,
फटे-चीथड़े
दिन अब क्यों
औरों की खूँटी टाँगना।
घड़ी-घड़ी
उम्मीदें टूटीं,
क़दम-क़दम
विश्वास लुटा,
साथ न पाया,
हाथ न थामा, गिरते-पड़ते
रोज़ उठा,
नहीं नाच पाया,
हर कोने टेढ़ा-मेढ़ा आँगना।
पन्ने-पन्ने
पढ़े समय ने
मेरी खुली किताब के,
काश,
जड़े होते
मेरे शब्दों में पर
सुर्खाब के,
उड़ते-उड़ते
शाम हो गई, अब क्या
पर्वत लाँघना।