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मेरे शाब्दिक साक्षी / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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वर्षों मेरी व्यथा को तुम,
शब्दों में बाँधते रहे,
मेरी दृश्य और अदृश्य वेदनाओं के,
शाब्दिक साक्षी रहे।
मेरा बहुत-सा अनकहा दर्द,
तुमसे प्रकाशित होता रहा,
मेरी आँखों में अनगिनत स्थिर आँसू
तुम्हारी लेखनी से अनवरत प्रवाहित रहे।
मेरी उम्र की लम्बी बेबसी
मेरी ये पीड़ाएँ तुमसे नहीं जन्मी थीं
ये तो मेरा प्रारब्ध था
मेरी निजी संपत्ति थी
फिर भी शब्दों की बड़ी-बड़ी हथेलियाँ फैलाकर
तुमने इन्हें अपरिमित अपनत्व के साथ,
मेरे साथ-साथ झेला था।
शून्यता में सिमटा था
मेरा एक सीमित आकाश
पर मैं अपनी रिक्तताओं से भरी-भरी
तुम्हारे किसी भी अभाव की
पूर्ति नहीं बन सकी
मैं अपने ही इतिहास से ढँकी रही
तुम्हारा भविष्य कभी नहीं बन सकी।