भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे सपने / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
Kavita Kosh से
मेरे सपनों को
घर की गीली मिट्टी खा गई...
घर के आंगन की गोष्ठी में
लगी काई ने
इनका मुंह काला किया...
बर्तनों को
ठक-ठक पड़ती गालियों से तोड़ा-फोड़ा
आंगन में जामुन की गुठलियों से
मिचमिचाते
धूप में सड़ते रहे...
पुरुषनुमा पत्थर के नीचे
पड़े-पड़े डेटोल लाइसोल
के छिड़कावों में बदबदाते
अधमरे कीटों से जीत रहें...
पर आज मिट्टी में मिल कर भी
कुकुरमुत्ता से सर उठाये
फैले हुए
उस दंभ को मुंह चिड़ा रहे हैं...!