भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे सामने रेगिस्तान था / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
वे मेरी देह खा रहे थे लाश की तरह,
मैंने देखा
नहीं कहा मैंने -- उतार दो मुझे धरती पर !
मैंने खुद को आग के इर्द-गिर्द पाया
किसी ऊँट की कूबड़ की तरह
मैंने खुद को झुका लिया धरती से गुज़रते हुए
अपनी हथेलियों में उन्होंने रेत जमा की
और उसे उड़ा दिया....
मैं रातों को जानवरों के पद चिह्नों के भीतर सोती थी
लहरों पर थी मेरी देह
जब ख़त्म हुई रेत
हिजाब के भीतर मेरी आँखों को मिली
"यह दुनियाँ जहाँ है"
- भले ही मैं ख़ानाबदोश हूँ ख़्वाहिशों के रेगिस्तान में -
रात के सामने, खजूर गिरते हैं मेरे ज़ेहन में
कोई आवाज़ नहीं मिलती कानों के लिए
सहारा की तरह विशाल अपने दिल की तरफ देखा था मैंने ।