मेरे हिस्से का इतवार / संगीता शर्मा अधिकारी
क्यों नाराज होते हो
गर मैं जी लेती हूँ
मेरे हिस्से का इतवार
तुम भी तो जीते हो
अपने हिस्से का इतवार
और कई वर्षों से
जी रहे हो
अपने हिस्से के
कई सौ इतवार
लगातार
फिर क्या फर्क पड़ता है
मेरे कुछ इतवारों के जीने से
जबकि हम दोनों जानते हैं
अपने-अपने हिस्से के इतवार
फिर क्यों नाहक
होते हो नाराज तुम
विदा कर देते हो
ऐसे अनेक इतवारों को
सर पटकने के लिए
छोड़ो ना
अब तो थूक दो ये गुस्सा
जो ले जाता है
हमारे कई सैकड़ों
इतवार चाहे-अनचाहे।
चलो ना
हम फिर से ढूँढ लाते हैं
वो सारे बिन हिस्सों के द्वार
वो सारे प्यारे रविवार
जिनमें नहीं थी शिकायतें
न उलाहने
न जी भर के
दिए गए अनगिनत ताने
उनमें तो था बस प्यार
प्यार ही प्यार
बेशुमार
हमारा इतवार
ढेर सारा रविवार-प्यारा इतवार।