भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे हिस्से की दोपहर / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
बंट रहे थे जब सारे पहर
बंट रही थीं जब
रोमांचक रातें
शबनम में नहायी
खुशनुमा सहर
मेरे हिस्से आई
बस गर्मियों की लंबी
चिलचिलाती दोपहर...