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मेरे होने से / सांवर दइया
Kavita Kosh से
समझाते हैं वे
जनेऊ-तिलक होंगे अर्थयुक्त तभी
जब करूं नियमित त्रिकाल संध्या
फरमाते हैं वे
अजान-रमजान फलेंगे तभी
जब रहूं बन पांच वक्त का पक्का नमाजी
कहते हैं वे
कंधा-कड़ा-कच्छा-कृपाण-केश का है
कोई अर्थ तभी
जब कंठ में रखूं गुरु-ग्रंथ साहब
सुनाते हैं वे
सेवा शब्द सार्थक तभी
जब लूं यीशू की शरण
जहरभरी कसीदाकारी वाले लबादे ओढ़े बिना
क्यों नहीं है कोई पहचान मेरी ?
मनु-पुत्र के नाते
जब-जब जुड़ना चाहता हूं तुमसे
क्यों धू-धू धधकने लगता है
दावानल बन अविश्वास
मेरे होने के लिए
क्यों जरूरी है
उनके दिए तगमें टांके फिरना ?
ज्ञानियों !
इतना तो बताओ
मेरा होना क्यों नहीं है
मेरे होने से ?