मेला है दो दिन का / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
माँझी खेता नाव लहर पर लहर खे रही तिनका
कहे किनारा आनेवालो! मेला है दो दिन का!
जलते दीप, पतंगे जलते, सुलग रहा जग सारा
जीनेवाले राख हो गए सत्य न केवल हारा
प्यासों को पीनेवालों को, मिलती पावन गंगा
सदी-सदी के पाप ढक गए सत्य अभी तक नंगा
अमर आस्था टूटे चाहे हर सपना पल छिन का
कहे किनारा-आनेवालो! मेला है दो दिन का
मेला है दो दिन का राही! वेला है दो पल की
जीवन के पनघट पर नित दिन भरी गगरिया छलकी
सबकी सांझें ढलकीं, रातें थककर बनीं पराई
पड़ी नहीं धरती पर पागल जुगनू की परछाई
जुगनू की तड़पन सम्बल है लाख-लाख दुर्दिन का
कहे किनारा आनेवालो! मेला है दो दिन का!
कहे किनारा आनेवालो होश बचाकर चलना
रजनी की काली चुनरी पर जुगनू बनकर जलना
लील न जाए धार, कठिन है पता पार का पाना
एक फूल के लिए पड़ेगा सौ-सौ शूल चुभाना
समय करेगा न्याय सही में यह पथ किनका-किनका
कहे किनारा आनेवालो! मेला है दो दिन का!
भूल न जाओ कूल किसी को सीधे मिल जाता है
बिना चुभाए शूल कभी भी फूल न खिल पाता है
बिना जलाए अधर कभी भी ज्योति नहीं आती है
मंज़िल छलियों की नहीं अरे! दीवानों की थाती है
राहें उसकी चरण-चिह्न पर नाम अमिट जिन-जिनका
कहें किनारा आनेवालो! मेला है दो दिन का!
नाम अमिट है उनका आहट जिनकी अलख जगाती
कभी नहीं चेतना किसी भी साधक की मुरझाती
दो दिन का जग खेल और दो दिन का यह अपनापन
जीता तो है इस धरती पर तिमिर-विजय आन्दोलन
अर्थहीन अनगिन मरते हैं कौन ठिकाना इनका!
कहे किनारा आनेवालो! मेला है दो दिन का!