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मेले में हम / सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
Kavita Kosh से
हम तो जैसे मेले में हैं
चहल पहल दिनभर रहती है
मॉल चहूँ दिशि सजे हुये हैं
हाथ पकड़ कर साथी के सब
मन रंजन में पगे हुये हैं
हम तो जैसे रेले में हैं
इधर नहीं तो जायें किधर अब
उधर नहीं तो और कहाँ?
सहमे सहमे कदम हमारे
हम अपने में रहे कहाँ हैं
सब तो अपनी देले में हैं
समझे थे अपने को ज्ञानी
लेकिन रहे महा अज्ञयानी
निशदिन गढ़ते रहे कहानी
राह नहीं अपनी पहचानी
हम तों जैसे धेले में हैं
चलते हैं पर पता नहीं है
सड़कों पर भी जगह नहीं है
बैठे कार सवारी में पर
किधर जायें यह पता नहीं है
लगता जैसे मेले में हैं।