भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेहराब न क़िंदील न असरार न तमसील / मनचंदा बानी
Kavita Kosh से
मेहराब न क़िंदील न असरार न तमसील
कह ऐ वर्क़-ए-तीरा कहाँ है तेरी तफ़सील
इक धुँद में गुम होती हुई सारी कहानी
इक लफ़्ज़ के बातिन से उलझती हुई तावील
मैं आख़िर परतव हूँ किसी ग़म के उफ़ुक़ पर
इक ज़र्द तमाशा में हुआ जाता हूँ तहलील
वामांदा-ए-वक़्त आँख को मंज़र न दिखा और
ज़िम्मे है हमारे अभी इक ख़्वाब की तश्कील
आसाँ हुए सब मरहले इक मौजा-ए-पा से
बरसों की फ़ज़ा एक सदा से हुई तब्दील