मैंने अम्बर चूम लिया / कमलेश द्विवेदी
बिंदी चूमी मेंहदी चूमी और महावर चूम लिया।
आज धरा पर बैठे-बैठे मैंने अम्बर चूम लिया।
जिस दिन वह मेरे घर आया
महक उठा सारा घर-आँगन।
ख़ुशबू के सागर में गहरे
डूब गया यों मेरा तन-मन।
देहरी चूमी आँगन चूमा फिर सारा घर चूम लिया।
आज धरा पर बैठे-बैठे मैंने अम्बर चूम लिया।
सुन्दरता को और निखारें
ऐसे गहनों का क्या कहना।
उन गहनों के साथ-साथ था
लाज-शर्म का अनुपम गहना।
बेंदी चूमी, कंगन चूमा फिर हर ज़ेवर चूम लिया
आज धरा पर बैठे-बैठे मैंने अम्बर चूम लिया।
दिल में जिसे छुपा रक्खा था
वो आ गया निगाहों में अब।
जो सुधियों में रहा अभी तक
उतरा है कविताओं में अब।
गीतों में भर गयी मधुरता वह मीठा स्वर चूम लिया।
आज धरा पर बैठे-बैठे मैंने अम्बर चूम लिया।
कैसे उसे बताऊँ उसने
मुझ पर क्या उपकार किया है।
मेरे मन में पावनता का
उसने यों संचार किया है।
मंदिर की सीढ़ी चूमी तो लगता ईश्वर चूम लिया।
आज धरा पर बैठे-बैठे मैंने अम्बर चूम लिया।