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मैंने खुद अपनी ही आँखों से है पता देखा / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
मैंने खुद अपनी ही आँखों से है पता देखा
साफ अक्षर में मेरा नाम था लिखा देखा
इक हवेली थी बहुत दूर वहाँ पर्वत पर
जिसकी खिड़की न तो दरवाजे को खुला देखा
एक भी शख्स कहीं दूर तक न दिखता था
दूर तक जाता हुआ सिर्फ रास्ता देखा
तुमने रो-रो के ही तो लम्बी जिन्दगी काटी
दो घड़ी जी के भी हँसने का मैं मजा देखा
मुझमें क्या उनको नजर आता है, वो ही जाने
देखने वालों में मैंने तो बस खुदा देखा
तूने सोचा कभी ये रात भी आ सकती है
मैंने तो शाम तलक तेरा आसरा देखा
जिन्दगी भर वो उठाता रहा है घाटे को
जिसने फनकारी में थोड़ा भी फायदा देखा
तुम गए जबसे हो अमरेन्द्र ऐसा लगता है
वह एक चिराग जों जलता था, वह बुझा देखा।