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मैंने खोला... / केदारनाथ अग्रवाल
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मैंने खोला बन्द कोठरी के किवाड़ का पल्ला,
बरसों बाद, सुनी मैंने जड़ लकड़ी की चर्र-मर्र
सोचा था मैंने
कोई निकलेगा महान वहाँ भीतर से
जिसे देख प्रमुदित हो जाऊंगा मैं
किन्तु है मुझे खेद
कि वह निकला एक बौना
मेरी मुखाकृति का
और मैं लजा गया अपने से ।