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मैंने चाहत का खुदा किसको बना रक्खा था / सिया सचदेव
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मैंने चाहत का खुदा किसको बना रक्खा था
किसके क़दमों में ये सर अपना झुका रक्खा था
हाँ वहीं ख्वाब तो टूटे हैं मेरी आँखों से
मैंने मुद्दत से जिसे दिल में बसा रक्खा था
झूठी खुशियों का ठिकाना ही नहीं है कोई
ग़म का सरमाया कहाँ दिल से जुदा रक्खा था
आज इक आस के पंछी का गला घोंट दिया
खाना ए दिल में बहुत शोर मचा रक्खा था
मुझको दुनिया की समझ आई नहीं क्यूँ अब तक
उसका हर झूठ क्यों सच मैंने बना रक्खा था
कल की शब् मुझ पे सिया कितनी अजब गुज़री थी
दिल पे हैरत ने अजब रंग जमा रक्खा था