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मैंने तुम से कभी कुछ नहीं माँगा / अज्ञेय
Kavita Kosh से
मैं ने तुम से कभी कुछ नहीं माँगा।
किन्तु, जब मधु-सन्ध्या के धुँधलके में मैं पश्चिमी आकाश को देखती बैठी होती हूँ, जब स्निग्ध-तप्त समीर नीबू के सौरभ-भार से झूमता हुआ मुझे छू जाता है, तब मैं अपने भीतर एक रिक्ति पाती हूँ और अनुभव करती हूँ कि तुमने मुझे प्रेम से वंचित रखा है।
मैं ने तुम्हें कभी कुछ नहीं दिया।
किन्तु जब उस घोर नीरव दोपहरी में मैं आकाश-समुद्र की उड़ती हुई छिन्न बादल-फेन देखती हूँ, और बुलबुल सहसा एकाकी पीड़ा के स्वर में सिसक उठती है, तब मैं जान जाती हूँ कि मेरा हृदय अब मेरा नहीं रहा है।
लाहौर, अगस्त, 1936