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मैंने तो कुछ धूप के टुकड़े माँगे थे / कुमार शिव

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मैंने तो कुछ धूप के टुकड़े माँगे थे
तुमने वर्गाकार अन्धेरे भेज दिए ।

मेरी सुबह नक़ाब पहन कर आई है
चितकबरा सूरज बैठा है पर्वत पर
सन्नाटा गूँजा है मेरे होंठों से
फूल नीम के महके मेरी चाहत पर
 
मैंने तो पुरवा के झोंके माँगे थे
तुमने अन्धड़ केश बिखेरे भेज दिए ।

मैं तट पर बैठा-बैठा यह देख रहा
नदी तुम्हारी कितनी गोरी बाँहें हैं
दो नावें जो तैर रहीं हैं पानी में
यही तुम्हारी जादूगरनी आँखें हैं
 
नदी, भरोसे मैंने तुमसे माँगे थे
तुमने तो भँवरों के घेरे भेज दिए ।

घिरा खजूरों से मैं एक किनारा हूँ
बहुत टूटकर मैंने चाहा है तुमको
सूखा हो या बाढ़ तुम्हारे होंठों पर
मैंने बाँहें खोल निबाहा है तुमको

मैंने तो अनियन्त्रित धारे माँगे थे
तुमने तो लहरों के फेरे भेज दिए ।