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मैंने तो नहीं चाहा/ हरीश भादानी

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मैंने तो नहीं चाहा
कोई भव्य नारायण
मैं नहीं हूँ
संशयों से संतप्त
नर कौन्तेय
मेरे होने
धड़कते रहने की
अपनी आयतें ऋचाएं है
जिनकी हिज्जे किए बिना
फैला दिया जाए
शून्य तक को भेदने
उठा दिया जाए रचाव
जिसकी नींव का
पत्थर न हो मेरी हथेली
सम्बोधन ही
कैसे दूं उसे
जो एषणा
जीवेशणा मेरी नहीं
उसे मैं सांस कैसे लूं
कैसे कहूं उसे
अद्दश्य का द्दष्टा
कैसे अगुआऊं
रखे गए अव्यक्त का
यही है व्यक्त

उड़ाया ही उड़ाया गया
आकाश ही बने रहने
आखिरश
हो ही गई मुझे
पहचान अपनी
सूरज के रु-ब-रु होकर
झुलसती पपड़ियाती
पसरी हुई
धरती हूँ मैं जिसे
मुट्ठियां भर-भर उछाल
रंगे जाते क्षित्तिज
उकेरली जाती दिशाएं

लो मैंने भी
हिमालय को
अर्पित कर दिया है शंख
झालर थमादी है
अतीत को मैंने
सोच के बयाबां से
कभी का
आ गया बाहर
उठे हैं पांव जिस ओर
वह सीध मेरी है
फटेगी यवनिका
वह दिशा सुनिश्चित है
प्रत्यंचा
तूणीर
कर्म का महात्म्य
जो भी बाँचें वे सुन
मेरे चेहरे को
जरूरत ही नहीं
कि रंग पोते
न मेरे भीतर है
मुचा हुआ कोई अहम कि
आकाश का विराट
औंचक देखता जाए

इन हाथों ने
यूं बरती है छैनी
तगारी कलम कि
आदमकद हुआ है समय
यही है
मेरा आज
यही मेरा अनागत
यह मुझसे
मैं इसीसे
गूंजता अतलान्त तक
इत्ता बड़ा अस्तित्व
बर्फ की फुनगियां
जो बिखेरें
वे सुनें देखें
अलगजर उठता
यह आज
अनागत को
अपने ही कद का आकार लेने

आंधियां पीता है
धूप खाता है
और बोलता है
मैं किसी मैदान में
हथियार त्यागे-हाथ बांधे
बृहनला हो गया
अर्जुन नहीं हूँ
और मेरे सामने
रचा गया है
जो भी भव्य नारायण
वह मेरा नहीं
कत्तई मेरा नहीं
            
जनवरी’ 77