भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने देखा था, कलिका के / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने देखा था, कलिका के
कंठ कालिमा देते
मैंने देखा था, फूलों में
उसको चुम्बन लेते
मैंने देखा था, लहरों पर
उसको गूँज मचाते
दिन ही में, मैंने देखा था
उसको सोरठ गाते।

दर्पण पर, सिर धुन-धुन मैंने
देखा था बलि जाते
अपने चरणों से ॠतुओं को
गिन-गिन उसे बुलाते
किन्तु एक मैं देख न पाई
फूलों में बँध जाना;
और हॄदय की मूरत का यों
जीवित चित्र बनाना!