Last modified on 7 अक्टूबर 2009, at 09:55

मैंने देखा था, कलिका के / माखनलाल चतुर्वेदी

मैंने देखा था, कलिका के
कंठ कालिमा देते
मैंने देखा था, फूलों में
उसको चुम्बन लेते
मैंने देखा था, लहरों पर
उसको गूँज मचाते
दिन ही में, मैंने देखा था
उसको सोरठ गाते।

दर्पण पर, सिर धुन-धुन मैंने
देखा था बलि जाते
अपने चरणों से ॠतुओं को
गिन-गिन उसे बुलाते
किन्तु एक मैं देख न पाई
फूलों में बँध जाना;
और हॄदय की मूरत का यों
जीवित चित्र बनाना!